Wednesday, 20 May 2015

संसाधनों का खननः विकास की तर्ज पर
                           .विकास अरोरा

प्रकृति ने पूर्व निर्धारित तरीके से इन्सान को प्राकृतिक सम्पदा दी है। मनुष्य के लिए सर्वाधिक आवश्यक सम्पदा हैवाय; प्रकृति ने इसे उतनी ही आसानी से मनुष्य को उपलब्ध कराया है सोचिए हीरे का आप क्या करेंगे यदि वायु ही नहीं होगी तो आपके प्राण तो वायु से ही हैं दूसरी महत्वपूर्ण सम्पदा हैजलऔर तीसरी महत्वपूर्ण सम्पदा हैअनाज‘ (भोजन) आश्चर्यजनक रूप में सम्पदायें मानव को उसकी आवश्यकता के अनुरुप ही मिली हुयी हंै।

गाँधी जी ने सही कहा थाप्रकृति की सम्पदा सभी मानवों की जरूरतों को तो पूरा कर सकती है लेकिन एक मानव के लालच को नहीं।हिमालय प्रकृति का वरदान है। भारत के लिये तो इसकी उपयोगिता और भी कहीं व्यापक है क्योंकि भारत की उत्तरी सीमा का प्राकृतिक रक्षक है। लेकिन हम कर क्या रहे हैं, अपनेरक्षक का भक्षण‘? हम जानते हैं यह पर्वत मानव की उत्पति से भी पूर्व निर्मित हुआ। इसकी चट्टानें ग्रेनाइट की बनी हैं इसके ऊपर बर्फ की जो परत चढ़ी है वो कई सौ सालों का परिणाम है। प्रकृति ने इसे साजेये रखा है लेकिन हमने आधुनिकता का छदम वेष धारण कर रखा है। हम आधुनिकता को भौतिकता के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखते हैं जबकि आधुनिकता विचारों में होनी चाहिए। हमें आवास चाहिए हमें कृषि के लिए भूमि चाहिए, हमें शहरीकरण के लिए अन्य कारक चाहिए। इसलिए हमने वनों को काट दिया है। भारतीय जनसंख्या 1921 कीे पैंतीस करोड़ से लेकर 2012 में एक अरब के आंकडे को पार कर गई है। अब जनसंख्या के जीवन स्तर में वृद्धि के लिए ऊर्जा चाहिए, ऊर्जा के लिए बिजली और बिजली के लिए बांध चाहिए और बांध प्रकृति के नियमों के विपरीत हैं। शोध ये प्रमाणित करते हैं जहां बांध बनते हैं वहां भारी जलराशि के दबाव की वजह से पृथ्वी की सतह की प्लेटों पर दबाव बनता है और भूकंप एवं भूस्खलन की समस्याएं अधिक बढ़ जाती हैं।

अब हमें प्रकृति के नियमों को समझते हुए समस्या के मूल में जाना पड़ेगा और सत्यता के मूल में दिखाई देती है इंसान की भौतिकतावादी प्रकृति। जनता जब तक अपनी सोच नहीं बदलेगी, भौतिक सुविधाओं के पीछे भागने की बजाय प्रकृति के पीछे नहीं  भागेगी तो स्थिति में सुधार लाना मुश्किल प्रतीत होता है। यदि बांध बनता है तो हजारों लोग विस्थापित होते हैं, हम कहते हैं सरकार दोषी है; दोषी तो है क्येांकि वो देश की नीति निर्माता है लेकिन दोषी वे लोग ज्यादा हैं जो एसी और अन्य सुविधाओं का उपयोग शहरीकरण के नाम पर करते हैं। भौतिकतावादी हमारे नागरिकों की सोच दोषी है। सबसे पहले तो हमें इंसान की सोच बदलनी होगी क्योंकि हिमालय की संपदा की रक्षा की जिम्मेदारी हम सब की है। हममें से प्रत्येक को अपनी सुविधाओं का त्याग करना होगा तभी हिमालय पर आई विपदा को हम हल कर पाएंगे।

हमें हर छोटे काम के लिए मोटर-कार चाहिए, बिजली चाहिए, प्रदूषण तो हम लोग फैला रहे हैं और दोष मानसून को देते हैं। ग्लोबल वार्मिंग हम कर रहे हैं, मत खरीदो ऐसी चीजें को ग्लोबल वार्मिंग का प्रोत्साहित करती हैं। गांधी जी के असहयोग आन्दोलन की फिर से इस देश को जरूरत है। हमें उस प्रत्येक चीज का असहयोग करना होगा जो पर्यावरण के वितरीत है, गांधी जी के स्वदेशी के नारे को भारत की जनता को पुनः याद करना होगा और भारतीय परंपरागत एवं प्राकृतिक चीजों को अपनाना होगा, सच तो यह है कि हम भौतिकतावादी परंपरा को छोड़ नहीं पा रहे हैं ; हमारा लालच दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है जब तक हम अपने स्वयं पर रोक नहीं लगा पायेंगे तब तक सामने वाले को दोषी भी नहीं ठहरा पायेंगे। हम सबको अपनी जीवनशैली में बदलाव लाने की जरूरत है। सच तो यह है कि हमने अपनी मानसिक प्रवृति को ऐसा बना लिया है कि हम छोटे से छोटे काम के लिए वाहन का उपयोग करना चाहते हैं यदि हम साइकिल का उपयोग करते हैं तो हमारे व्यक्तित्व को निम्न समझ लिया जाता है जो व्यक्ति मोटरकार से आयेगा उसके व्यक्तित्व को उतना ही उच्च मान लिया जाता है। एक नागरिक ग्राम पंचायत की पेड़ के नीचे होने वाली मीटिंग में उपस्थित होने की बजाय देश के पांच सितारा होटल में उपस्थित होने पर खुशी जाहिर करता है; जहां ऐसा समाज है, ऐसी प्रथायें हैं, जिस समाज की मानसिकता ऐसी कुविचारों से भरी हुई है, वह समाज कहता है कि वह आधुनिक बन गया है। बेशक ! आधुनिक है पर केवल भौतिकता के रूप में, विचारों में तो वह पतनशील ही है। आधुनिकता विचारों में लेकर आनी थी और हम उसे भौतिकता में लेकर गए; फिर हम कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, हिमालय की बर्फ पिघल रही है, हिमालय पर बांध मत बनाओ, नर्मदा के बाधों का जलस्तर मत बढ़ाओ। इन सब बातों के कहने से कुछ होने वाला नहीं है, सर्वप्रथम इस देश के प्रत्येक नागरिक को अपने आप में बदलाव लाने की जरूरत है, यदि ऐसा हो पाता है तो प्रदूषण अपने आप की खत्म हो जायेगा। जलवायु परिवर्तन के लिए दोषी फैक्ट्ररी तब चलती है जब आप उसके उत्पाद का उपयोग करते हैं इसलिए प्रदूषण के लिए केवल कम्पनी या फैक्ट्ररी जिम्मेदार नहीं है बल्कि प्रत्येक वह नागरिक और व्यक्ति जिम्मेदार है जो उसके उत्पाद का उपयोग करता है। जब उत्तराखण्ड जैसी आपदा आती है तो उसके लिये पूरा भारतीय समाज जिम्मेदार है क्योंकि उत्तराखण्ड के बांधों की बिजली का प्रयोग पूरा देश करता है। जब देश के नागरिक को समझाया जाता है किजल ही जीवन है, कम से कम व्यर्थ करेंतो वह पचास लीटर की बजाय साठ लीटर पानी का उपयोग करता है। हम कह रहे हैं कि बिजली का उपयोग होने पर बिजली बंद कर दें लेकिन देश का नागरिक उतना ही उसका दुरुपयोग करने में लगा है। यह वही नागरिक है जो उच्च व्यक्तित्व का दावा करता है और शहरीकरण में शामिल है। गांव में अभी भी सुबह छह बजे तक बिजली उपकरण बंद हो जाते हैं लेकिन हमारे शहरों में सारा दिन बिजली उपकरण चालू रहते हैं। हम उत्तराखण्ड में बांधों के विरोध में बैठक कर रहे हैं लेकिन यदि बांध यहां नही ंतो कहीं ओर बना दिये जाएंगे और हमारी समस्या वहीं की वहीं रह जायेगी क्योंकि हम सब इसके मूल में जाना ही नहीं चाहते क्योंकि ऐसा करने से हमारी भौतिकतावादी प्रवृति पर आंच जायेगी।

कारण- सस्ती लोकप्रियता और सस्ती राजनीति के नाम पर कृषि एवं वन भूमि का आवंटन कर दिया गया और वहां भूमि का अलोटमेंट हो गया और नदी के आसपास के क्षेत्रों में नगरीकरण कर दिया गया। नदियों के किनारे नगरीकरण और शहरीकरण की इजाजत प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप में देने पर ही आपदा प्रभावित लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है। उत्तराखण्ड सरकार ने अभी हाल ही में रुके हुए निर्माणों को पुनः प्रारंभ करने की इजाजत दे दी। टिहरी बांध के संबंध में सरकार की ओर से ये तर्क दिये जा रहे हैं कि इसी बांध ने पानी के प्रवाह को रोक लिया और विनाश की प्रलय को महाप्रलय में बदलने से रोक लिया गया। लेकिन इसका उत्तरायित्व कौन लेगा कि यह बांध की दीवार भविष्य में सुरक्षित रहेगी यदि ये बांध की दीवार भूकंप या अन्य किसी कारण से टूटती है तो महाप्रलय आना निश्चित है जबकि बनाने वाले जानते हैं कि बांधभूकंप संभावित क्षेत्र-प्रथममें स्थित है इसका अर्थ ये हुआ  िकइस बांध का निर्माण देश के सर्वाधिक भूकंप संभावित क्षेत्र में कर दिया गया है। देश को हरित विकास की जरूरत है, हम हरित विकास का विरोध नहीं करते लेकिन विकास के नाम पर उन कार्याें की निंदा करते हैं जो निजी स्वार्थ और लाभ के लिए उत्तराखण्ड में जोरों से चल रहे हैं।

बचाव- यह आपदा आधुनिक विकास और पर्यावरण के बीच द्वंद का परिणाम है, तभी कुछ लोगांें ने इसे मानवीकृत आपदा कहा है। हिमालय क्षेत्र की दुखद घटना ने सबको झकझोड़ दिया है। अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न हैपुर्नवास सरकार इस महत्वपूर्ण कार्य में ढ़ील दिये हुए हैं, सरकार लोगों को पुर्नवास करती है तो नदियों का अतिक्रमण रुक पायेगा अन्यथा वे लोग पुनः पूर्व अवस्था में चले जायेंगे जिससे पहले जैसे हालात पुनः नजर आने लगेंगे। इस विपदा ने एक इतिहास बना दिया है और इतिहास भूलने के लिए नहीं सीख लेने के लिये होता है इसलिए हमें इससे सीख लेते हुए ये ध्यान रखना होगा कि विकास, मानव जीवन के मूल्य पर नहीं किया जाना चाहिए। विकास के नाम पर जो बांध बना दिये गए हैं उनका समाधान क्या होगा उनका हल हमें ढूंडना होगा। इसका एक समाधान ये हो सकता है कि नदी के एक निश्चित बहाव को प्रकृति के अनुरूप बने रहने दिया जाना चाहिए। प्रकृति के कार्य में मानवबृद्धि हस्तक्षेप करते समय यह भूल गई है कि बुद्धि, प्रकृति की दी हुई है; प्रकृति बुद्धि की दी हुई नहीं है इसलिए बुद्धि को प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हरित नवनिर्माण को विकल्प के रूप में लेना होगा। उत्तराखण्ड में आवास निमार्ण से पहले ये निश्चित करना होगा कि वो विकास नदियों के परंपरागत प्राकृतिक रास्तों को कहीं बंद कर दें। हमें विनाश ज्यादा इसलिए दिखाई दिया क्योंकि हमारा आयोजन ठीक नहीं था। इसके अतिरिक्त कुछ बेहद संवेदनशील इलाकों में सरकार को आपदा प्रबंधन दस्ता रखना होगा। रेस्तरां और अन्य व्यावसायिक गतिविधियों को नदियों के पास होने से रोकना होगा, सरकारी तंत्र, पर्यटन और विदेशी पूंजी के नाम पर राज्य का जिस तरह का विकास कर रही है उसे बंद करना होगा। हमें विकास के साथ हरित लानी होगी और हमें ऐसा विकास चाहिए जो हमेशा हरा-भरा रहे।

अर्थव्यवस्था- उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था पर्यटन पर टिकी है यहां के लोग देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों के लिए कार्यरत्त हैं और इसलिए ये लोग धीरे-धीरे पर्यटन तंत्र के आसपास की भूमि पर आवास और अन्य व्यावसायिक संस्था खोल देते हैं और जब कभी भी नदियों का जलस्तर मानवीयकृत विकास के चलते अपनी प्राकृतिक सीमाएं लाघता है तो इस पर्यटन क्षेत्र में रह रहे लोगों को सर्वाधिक हानि विभिन्न रूपों में उठानी पड़ती है इसलिए सरकार को चाहिए कि वो एक स्वच्छ पर्यटन शैली का उत्तराखण्ड में विकास करे, एक सीमा निर्धारित करें जहां किसी निर्माण को निषेध किया जा सके। नदी के आसपास  का क्षेत्र संरक्षित घोषित किया जाना चाहिए। सबसे बड़ी बात तो ये है कि पर्यटन विभाग की जिम्मेदारी है कि आंकड़े उपलब्ध कराये कि कितने लोग पर्यटन क्षेत्र में गए थे, उनका निवास क्या है लेकिन उसकी निंद्रा तो तब खुली जब पूरे विश्व ने आपदा की चीख सुन ली थी हमारे विभाग की नीतियां इसके लिए जिम्मेदार हैं कि हमें जाने वाली जानों के सही-सही आंकड़े भी पता नहीं है।


पारिस्थितिकीय - हिमालय की पारिस्थितिकीय, हिमालय की धरोहर है लेकिन ये विपदाएं, पारिस्थितिकीय को भी हिला देती हैं। हिमालय का काफी फ्लोरा एंड फ्यूना नष्ट हो गया है इस बढ़ते और अप्रमाणिकृत आवासीकरण और प्रदूषण ने इसे सर्वाधिक चोट पहुंचाई है सरकार को इसपर कड़ी कार्यवाही करते हुए इसपर रोक लगानी चाहिए। प्रदूषण की वजह से हिमालयी क्षेत्र के तापमान में .8 डिग्री सैल्सियस की वृद्धि प्रदर्शि की है। हिमाचल प्रदेश में सरकार ने ओद्यौगीकरण को तेज करने के लिए इसे आयकर फ्री क्षेत्र में दस साल के लिए डाल दिया है। तो इस साल पूर्वोतर क्षेत्र को इस श्रेणी में डाल दिया है ओद्यौगीकरण तो सरकार को दिखाई दिया लेकिन इसकी वजह से हिमालय पर होने वाला प्रभाव दिखाई नहीं दिया। यह तो प्रकृति ने स्वंय इसे विपदा के रूप में सरकार के सामने ला खड़ा किया है। अब सरकार पैनल बनाकर इस समस्या का हल खोजने में लगी है लेकिन आंकड़ों को बदलने के सिवाय और कुछ होने वाला नहीं है।

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