Wednesday 20 May 2015

वर्तमान विकास और कृषि
                                  .     विकास अरोड़ा

विश्व की जनसंख्या 7 अरब पार पहुंच गयी है। भारत ने भी 1 अरब के आंकड़े को पार कर लिया है। राष्ट्रनिर्माताओं और योजना आयोग ने कृषि और इससे जुड़ी विभिन्न गतिविधियों पर ध्यान दिया, औद्योगिक विकास माॅडल के साथ साथ कृषि को भी व्यावसायिक बनाया गया जिसकी वजह से उत्पाद की गुणवत्ता की बजाए उत्पादन पर ध्यान दिया गयाद्य हरित क्रांति के माद्यम से उत्पादन बढ़ा लेकिन गुणवत्ता से समझोता हो गया द्य यह भी एक वजह है कि भारत 21वीं शताब्दी आते-आते खाद्यानों में आत्मनिर्भर हो गया। लेकिन अभी भी समग्र गुणवत्ता से भरपुर पर्याप्त भोजन मिल पाये - ऐसा करने में विफल रहें हैं। जिसकी वजह से हमारे हाथ आज खाद्य वस्तुओं में मिलावट से पूरी तरह सने हुए। सब्जियों में पेस्टीसाइडस का अंधाधुध उपयोग हो रहा है। फसलों में विभिन्न प्रकार के कीटनाशी रसायनों का उपयोग किया जा रहा है। बाजार में उपलब्ध कोई खाद्य पदार्थ  शायद ही ऐसा हो जो रायायनिक पदार्थों द्वारा उपचारित ना हो। विभिन्न सोफ्ट ड्रिंक पी रहे लोग सीधा बिमारियों को न्योता दे रहे हैं। इन कंपनियों की मजबूरी यह है कि कोई भी खाद्य योग्य विनिर्मित पदार्थ बिना संरक्षक (प्रिजरवेटिव) के मार्केट मे नहीं रह सकता। यह प्रिजरवेटिव कई प्रकार के हो सकते हैं। आमतौर पर एक प्रकार का डी.डी.टी. डाला जाता है विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लयू.एच..) ने संरक्षक की मात्रा के लिए मानक निर्धारित कर रखे हैं लेकिन हमारे यहां बाजार के दूरदराज में स्थित होने की वजह से और गरम मौसम की वजह से इसमें तय मानक से ज्यादा डी.डी.टी. डाला जाता है। हमारे समाज का तंत्र इतना भ्रष्ट हो गया है कि ऐसा कुकृत करने वाली कंपनियों की जानकारी रखने वाला भी उनके खिलाफ कुछ नहीं कर सकता क्योंकि इससे ऐसा करने वाले पर मानहानि का मुकदमा चलने का खतरा होगा। जब तक समाज में ईमानदारी एक व्यापक और सहज मूल्य नहीं बनती तबतक इस प्रकार के आत्मघाती कुकृत्यों पर लगाम लगाना मुश्किल है।  सभी प्रिजरवेटिव रासायनिक पदार्थ है जिनका शरीर पर दुष्प्रभाव होना तय है। यह भी सत्य है कि हम लोग जिस सफेद दूध को सेहत का राज समझ कर पी रहे हैं वह अपने अंदर कई हानिकारक रासायनिक तत्व समाये हुए हैं। प्रकृति ने तो सफेद दूध ही दिया था मानव को, लेकिन मानव बुद्धि ने इसके व्यवसायिकरण के चलते इसे जहर बना दिया। यह आपकी सेहत को भारी नुकसान पहुंचाने में सक्षम है। ऐसा ही एक रसायनिक तत्व है फोर्मेलिन (भ्ब्भ्व्), यह वही सोल्यूशन है जिसमें बाॅयलोजी लैब में मरे हुए जीवों को सुरक्षित रखा जाता है। चार किलो दूध में एक बूंद फोर्मेलिन मिलाने से दूध गर्मियों में बाजार के अंदर टिका रहता है। ना केवल नामी कंपनियां बल्कि ग्रामीण क्षेत्र के दूधिये भी अब प्रत्यक्ष रूप से इसको इस्तेमाल करने लगे हैं। दूध में से वसा निकालकर इस दूध मेें नकली गाढ़ापन लाने के लिए यूरिया और स्टार्च खुलेआम मिलाया जा रहा है। इसके अतिरिक्त हाईड्रोजन-पराक्साईड, केटालेज सस्ते संरक्षक के रूप में काम में लाये जा रहें हैं। पोटेशियम डाइक्रोमेट, ब्रोनोपोल, डिटर्जेंट इन्हें दूध में झाग और चमक पैदा करने के लिए काम में लाया जा रहा है। ये सभी कोशिका के टूटने-बनने के चक्र (उपापचय) को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

इसके अतिरिक्त खाद्य पदार्थों सब्जियों में मिलाये जाने वाले रसायनिक तत्वों में सिल्वर नाइट्रेट, कार्बोलिक एसिड, बोरिक एसिड, बेनजोइक एसिड, सेलीसाइलिक एसिड और हाइड्रोजन पराक्साईड शामिल हैं। सब्जियों के संदर्भ में तथा फलों के संबंध में उपभोक्ताओं कोे यह राय दी जाती है कि वे इन सभी को अच्छी तरह से धो कर काम में लें ताकि कुछ रसायनिक पदार्थ जो सतह पर हैं उसे हटाया जा सके। मान्नीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी मिलावट को एक संवेदनशील मामला बताया है और खाद्य सुरक्षा मानक भारतीय प्राधिकरण (एफ.एस.एस..आई.) को इसकी जांच सौंपी है।

कुछ लोग जो कार्बनिक खेती भी ईमानदारी  से नहीं कर रहें हैं। और किसी किसी स्तर पर रसायनिक पदार्थों को उपयोग कर रहें हैं। इसलिए कार्बनिक खेती का प्रमाणिकरण एक चुनौतीपूर्वक कार्य बन गया है। इन समस्याओं के समाधान के लिए यहां कानूनी पोलपट्टी को खत्म करना होगा वहीं उपभोक्ता जागरण का काम करना होगा और साथ ही भ्रष्टाचार के खिलाफ चैतरफा हमला बोलना होगा। काबर्निक खेती प्रमाणिक और समग्र रूप से किये जाने पर इस देश में काफी वाद-विवाद जारी है। लेकिन कम से कम हमारे यहां खाद्यान की आपूर्ति की समस्या नहीं हैं। इसलिए काबर्निक खेती को देश में अपनाया जा सकता है।

मिलावट हमारे खाद्यानों में ही नहीं बल्कि भूमि की उर्वरता में भी की जा रही है। रासायनिक उर्वरकों के नाम पर हमने हरित क्रांति प्रथम के दौरान भूमि की प्राकृतिक उर्वरता को लगभग समाप्त कर दिया गया है। इसका उदाहरण देश में मौजूद है। भटिंडा और आस-पास के हरियाणा के इलाकों से कैंसर के मरीज इतने ज्यादा रहें हैं कि यहां से चलने वाली एक ट्रेन का नाम ही कैंसर एक्सप्रेस पड़ गया है। यह हरित क्रांति प्रथम में उपयोग में लाये गये रासायनिक उर्वरकों का ही परिणाम है जो देर-सवेर हमें मिल रहा है। यूरिया, फास्फेट और पोटेशियम के लिए हम अपनी पूंजी विदेश में भेज रहे हैं। वही दूसरी ओर देश के किसान प्राकृतिक उर्वरकों के उपयोग की परंपरा से धीरे-धीरे पीछे हटते जा रहे हैं। इसका सबसे बुरा असर किसान की पारिवारिक अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। उसके लाभ का 50 प्रतिशत तो इन कामों में ही चला जाता है। मंहगी खाद, मंहगे बीज अच्छी फसल उगाने के लालच में आकर कई बार किसान भारी हानि भी उठा बैठते हैं। महाराष्ट्र का विदर्भ इसका ज्वलंत उदाहरण है। जिसमें किसानों ने पैसो का जुगाड़ कर मंहगे जीएम बीज खरीदे, खाद में निवेश किया, सिचाई में निवेश किया और जो फसल आई तो अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में दाम कम हो गये अब किसान अपनी लागत भी नहीं निकाल पाया और मरने को मजबूर होना पड़ा। इसके पीछे कई अंतर्राष्ट्रीय कारक भी जिम्मेदार हैं क्यांेकि कुछ देश ऐसा करते आये हैं कि वे अपने कृषि उत्पाद को कम लागत पर ले जाकर बेचते हैं जिससे स्थानीय उत्पाद का निर्यात रूक जाता है, और स्थानीय स्तर पर इतनी कीमत मिल नहीं पाती जितनी उसमें निवेश हो जाती है। लेकिन किसान अपने परंपरागत तरीकों को अपनाये तो वह इन समस्याओं से बच सकता है। इस खेल का फायदा केवल बड़े किसान ही लेते हैं क्यांेकि वे माल को स्टाॅक करने की क्षमता रखते हैं। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह देश की कृषक जनसंख्या को परंपरागत तरीके अपनाने पर जोर दे, केवल एक बार कर्ज माफी की घोषणा करने से कुछ होने वाला नहीं है। क्योंकि यदि सरकार स्थायी विकास चाहती हैं तो नीतियां भी स्थायी होनी चाहिए। कर्ज माफी एक तदर्थ दृष्टिकोण को दर्शाता है। सरकार को चाहिए कि यह ऐसी नीतियों को प्रतिपादित करे जिससे किसान देशी कारकों को कृषि में अपना सके। हमारी सरकार हमारी तुलना अमेरिका से करनी चाहती है, लेकिन यह याद रखना चाहिए कि दोनों देशों की पृष्ठभूमि में बड़ा अंतर है। वहां का किसान एक बड़ी भूमि का मालिक होता है। और साथ ही सरकार की तरफ से दी जाने वाली सब्सिडी काफी अधिक है। लेकिन भारत देश का किसान और कृषक वर्ग दोनों अभी इतना सामथ्र्य नहीं रखते कि वे इन्हें सहन कर सकें।

शायद इसलिए देश के वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक पूर्व राज्य सभा सदस्य श्री एम. स्वामिनाथन ने हरित क्रांति द्वितीय को भारत में लाने की बात कही है। उन्होंने प्राकृतिक स्त्रोतों के अधिक से अधिक उपयोग पर बल देते हुए इनके उपयोग द्वारा कृषि उत्पादन करने के लिए सरकार का ध्यान आकर्षित किया है। आॅर्गेनिक कृषि इसी संदर्भ में उठाया गया कदम है। आॅर्गेनिक कृषि परंपरागत कृ-षि विधि का एक रूप है। जिसमें प्राकृतिक स्त्रोतों का उपयोग कृषि में किया जाता है। शहरों का सीवेज, गाय, भैंस का गोबर अन्य जैविक पदार्थों का उपयोग खाद के रूप में किया जाता है। इस विधि में पेस्टसाइड के रूप में बाॅयोलाजिकल कारक काम में लिये जाते हैं। जैसे की नीम का तेल इत्यादि इन्हें बायोपोस्टसाईड की संज्ञा दी गयी है। उर्वरकों के रूप में जैव उर्वरकों का उपयोग किया जाता है।

भारतीय परिपेक्ष्य में यह विधि कृषक के लिए उपयोगी है लेकिन कमाल यह है जब एक व्यवसायिक बड़ा किसान इन विधियों का उपयोग करके उत्पादन लेता है तो वह बाजार में ‘‘आॅर्गेनिक का लेबल’’ लगाकर बाजार में उसे ऊंचे दाम में बेच रहा है। लेकिन बेचारा गरीब किसान और कृषक जब इसी विधि का परंपरागत रूप अपनाकर बेच रहा है तो उसे लाभ कम हो रहा है। ध्यान से देखें तो सिर्फ नाम का अंतर है ‘‘परंपरागत खेती’’ और आज कहते हैं ‘‘आॅर्गेनिक खेती’’

भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में यह विधि एक बदलाव तो ला ही सकती है। साथ ही उपभोक्ता को रासायनिक उपचारित फसलों से बचाव भी मिलेगा और कृषि की उर्वरता आने वाली पीढ़ी के लिए संजोई रखी जा सकेगी। इसे ही हम आज कहते हैं ‘‘संपोषणीय विकास’’ चूंकि यह स्थिर कारकों को साथ लेकर किया जाता है इसलिए यह स्थिर विकास भी है और समाज के सबसे गरीब तबके के कृषक को भी समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयत्न है तो यही सही अर्थों में ‘‘समावेशी विकास’’ भी है। इसी विधि का एक अन्य लाभ यह भी है कि यह छिपी हुई बेरोजगारी जिसकी सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है उसका कृषि संलग्न कार्यों में उपयोग किया जा सकेगा जैसे खाद का निर्माण करना, बाॅयो पेस्टिसाईडस बनाना एवं अन्य कार्य। इससे देश की विदेशी पूंजी का विदेशी बहि प्रवाह रूक जायेगा। यही वजह है कि योजना आयोग और विभिन्न मंत्रालयों के सचिवों देश के वैज्ञानिकों को इस ओर अपने कार्य में गति लानी चाहिए। लेकिन एक नीतिगत पहल और सामाजिक जागरूकता भी उतनी ही जरूरी है। नाबार्ड, सिडबी और अन्य विभाग प्राकृतिक उर्वरकों, प्राकृतिक पेस्टिसाइडस इत्यादि के लिए कृषक आधारित उद्योगों को लगाने के लिए लोन उपलब्ध करा रहे हैं। इसी के साथ-साथ हमें नीतिगत सुधारों के अंतर्गत खतरनाक पेस्टीसाईडस की पहचान करनी होगी। उन्हें प्रतिबंधित करना होगा और साथ ही इन नये विचारों को भारत को अपनाना होगा। क्योंकि ये तो भारत के नागरिकों के अपने परंपरागत विचार हैं जो विदेशी पाश्चात्य विचारों के प्रभाव में कहीं लुप्त प्रायः हो गये थे। इसके साथ-साथ सरकार को इसे निरंतर प्रोत्साहित करने की कोशिश भी करनी चाहिए।

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